Tuesday, August 30, 2011

बेशर्म


कोई पूछे ये बेशर्म क्या हे
तो मेरा उत्तर हे कि बेशर्म मैं हूँ
जो हर लफंगे को
जो कम्युनिकेसन का मतलब केवल लड़की पटाना मानते हो को बेशर्मी से कूटने के लिए सदैव तैयार हूँ
गर्ल्स यदि कोई भी साला तुम्हे तंग करें तो लफंगा हटाओ मंत्र बोलें ..
कमीना भाग जायेगा ..

"थू-थू-थू तेरे मुंह में गू " भाग जा साले नहीं तो तेरी भैन की चू....?"

अब इतने पे भी न भागे-तंग करे तो मुझे लिखें मैं उस बेशर्म को शर्म का चीर उढ़ा दूंगी

बेशर्मों की बारी है - बेशर्मी तैयारी है

लिखदेंगे उसके मुंह कालिख

जो भी लड़की छेड़ेगा
आइ मिस माई स्कूलिंग

Sunday, August 28, 2011

शहर में अम्मा


शहर में अम्मा
 बीच शहर में रह कर अम्मा
गुमसुम रहती है

खड़ी चीन जैसी दीवारें
नील गगन छूती मीनारें
दिखें न सूरज चाँद सितारे
घर आँगन सब बंद किवारे
बिछुरी गाँव डगर से अम्मा
पल-पल घुलती है

नंगा नाच देख टीवी में
नोंक-झोंक शौहर-बीवी में
नाती-पोते मुँह लटकाए
सन्नाटा हरदम सन्नाए
देख-देख सब घर में अम्मा
गुप-चुप रहती है

सारी दुनिया लगती बदली
चेहरा सबका दिखता नकली
धरम-करम सब रखे ताक में
सब के सब पैसा फ़िराक में
सह ना पाती ये सब अम्मा
सच-सच कहती है

शिल्पा सैनी 

आजकल


आजकल
 हवा में फिर से घुटन है आजकल
रोज सीने में जलन है आजकल
1घुल रही नफरत नदी के नीर में
नफरतों का आचमन है आजकल
1कौन-सी अब छत भरोसे मन्द है
फर्श भी नंगे बदन है आजकल
1गले मिलते वक्त खंजर हाथ में
हो रहा ऐसे मिलन है आजकल
1फूल चुप खामोश बुलबुल क्या करें
लहू में डूबा चमन है आजकल
1गोलियाँ छपने लगी अखबार में
वक्त कितना बदचलन है आजकल
1जा नहीं सकते कहीं बचकर कदम
बाट से लिपटा कफन है आजकल

शिल्पा सैनी 

सिंहासन


सिंहासन
 राजा के घर बेटा जन्मा
राजा हुए मगन
राज-पाट घर में ही
रह जाने के हुए जतन
राजा ने राजा बनने के
गुर को खूब सहेजा
इसीलिए अपने बेटे को
जंगल पढ़ने भेजा
राजनीति लोमड़ी पढ़ाती
बीता अनुशासन

मकड़ी से सीखा,
शिकार करने का जाला बुनना
बंदर ने बतलाया,
फल वाली डाली को चुनना
भालू ने दीक्षा दी-
कैसे मरते हैं दुश्मन

निरपराध लोगों को
जब धारा में गया लपेटा
परजा समझ गई,
पढ़कर आया राजा का बेटा
भूखे बाघों के कब्ज़े में,
रहना, 'सिंहासन'



शिल्पा सैनी 

सुबह


सुबह
 रोशनी
के नए झरने
लगे धरती पर उतरने

क्षितिज के तट पर
धरा है
ज्योति का
जीवित घड़ा है
लगा घर-घर में नए
उल्लास का सागर उमड़ने

घना कोहरा
दूर भागे
गाँव
जागे, खेत जागे
पक्षियों का यूथ निकला
ज़िंदगी की खोज करने

धूप निकली, कली
चटकी
चल पड़ी
हर साँस अटकी
लगीं घर-दीवार पर फिर
चाह की छवियाँ उभरने

चलो, हम भी
गुनगुनाएँ
हाथ की
ताकत जगाएँ
खिले फूलों की किलक से
चलो, माँ की गोद भरने

शिल्पा सैनी 

मैं शिखर पर हूँ


मैं शिखर पर हूँ
 घाटियों में खोजिए मत
मैं शिखर पर हूँ
धुएँ की
पगडंडियों को
बहुत पीछे छोड़ आया हूँ
रोशनी के राजपथ पर
गीत का रथ मोड़
आया हूँ
मैं नहीं भटका
रहा चलता निरंतर हूँ।

लाल-
पीली उठीं लपटें
लग रही है आग जंगल में
आरियाँ उगने लगी हैं
आम, बरगद, और
पीपल में
मैं झुलसती रेत पर
रसवंत निर्झर हूँ

साँझ ढलते
पश्चिमी नभ के
जलधि में डूब जाऊँगा
सूर्य हूँ मैं जुगनुओं की
चित्र----लिपि----में
जगमगाऊँगा
अनकही अभिव्यक्ति का मैं
स्वर अनश्वर हूँ



शिल्पा सैनी 

गंध के हस्ताक्षर


गंध के हस्ताक्षर
भेजता ऋतुराज
किसलय-पत्र पर
इंद्रधनुषी रंग वाले
गंध के हस्ताक्षर!
झूमते हैं खेत
वन-उपवन
हवा की ताल पर
थिरकते
बंसवारियों के अधर पर
फिर वेणु के स्वर

विवश होकर
पंचशर की छुअन से
लग रहे उन्मत्त
सारी सृष्टि के ही चराचर!

आज नख-शिख
फिर प्रकृति के
अंग मदिराने लगे,
और निष्ठुर
पत्थरों तक
सुमन मुस्काने लगे

पिघलता है पुनः
कण-कण का ह्रदय
हर कहीं पर अब चतुर्दिक
फागुनी मनुहार पर!



शिल्पा सैनी 

धूप के नखरे बढ़े


धूप के नखरे बढ़े
 
शीत की अँगनाइयों में
धूप के नखरे बढ़े

बीच घुटनों के धरे सिर
पत्तियों के ओढ़ सपने
नीम की छाया छितरकर
कटकटाती दाँत अपने
गोल कंदुक के हरे फल
छपरियों पर
जा चढ़े

फूल पीले कनेरों के
पेड़ के नीचे झरे तो
तालियों में बज रहें हैं
बेल के पत्ते हरे जो
एक मंदिर गर्भ गृह में
मूर्तियाँ मन
की गढ़े

बहुत छोटे दिन
लिहाफों में बड़ी रातें छिपाकर
भागते हैं क्षिप्र गति में
अँधेरों में कहीं जाकर
शाम के दो जाम
ओठों पर चढ़े
शीशे मढ़े

शिल्पा सैनी 

हँसिकाएँ


हँसिकाएँ

श्रीमती जी ने इन दिनों
स्वच्छता सप्ताह मनाया है
शुभारंभ के तौ र पर
पति की जेब को अपनाया है।

नारी स्व‍तंत्रता को
पुरुष ने खूब भुनाया।
अपनी नौकरी उन्हें दी
उनकी पगार को अपनाया।

जैसे ही पतिदेव ने
ओवर टाइम का मन बनाया।
पत्नी ने की घर की सफाई और
बर्तनों का ढेर उन्हें थमाया।

आजकल की आधुनिकता का
क्या गजब अंदाज है
मरती जा रही है सभ्यता
बेहूदगी का राज है।




शिल्पा सैनी 
20  जुलाई   २०११




स्वार्थ की दोपहरी में


स्वार्थ की दोपहरी में
 स्वार्थ की
दुपहरी में क्यों रहा टहल
तन-मन झुलसा देगा अपनों का छल

काँटों से
भरी हुयी छूना मत शाख
आग लगा सकती है बुझी हुयी राख
तेज़ बहुत आँधी है बस, ज़रा संभल

फँसना मत
कलियों के रूप में कभी
धोखे ही खाकर मैं आया अभी
आग सी हवायें हैं मोम से महल

रोओ मत
भीगेंगे आँख के सपन
मुड़ कर जो देखोगे आयेगी थकन
औरों को देखो पर जाओ न मचल

जिसको तू
सौंपेगा तन मन की गंध
जिस पर लुटायेगा अपना मकरन्द
वही तुझे कह देंगे चमन से निकल



शिल्पा सैनी 

चल चलें इक राह नूतन


चल चलें इक राह नूतन
 चल चलें इक राह नूतन

भय न किंचित
हो जहाँ पर
पल्लवित सुख
हो निरंतर
अब लगाएँ
हम वहीं पर
बन्धु - निज आसन

द्वेष - ईर्ष्या
को न प्रश्रय
दुर्गुणों की
हो पराजय
हो जहाँ बस
प्रेम की जय
खिल उठे तन मन



शिल्पा सैनी 

फिर क्यों मन में संशय तेरे


फिर क्यों मन में संशय तेरे
 फिर क्यों मन में संशय तेरे
जब-जब दीप जलाये तूने
दूर हुये हैं घने अंधेरे
फिर क्यों मन में संशय तेरे

स्वयं शीघ्र धीरज खोता है
क्रोध कि ऐसा क्यों होता है
नियति नवाती शीश उसी को
जो सनिष्ठ इक टेक चले रे
फिर क्यों मन में संशय तेरे

वीर पराजित हो सकते हैं
जय की आस नहीं तजते हैं
निष्प्रभ होकर डूबा सूरज
तेजवन्त हो उगा सवेरे
फिर क्यों मन में संशय तेरे

जग में ऐसा कौन भला है
जिस पर समय न वक्र चला है
धवल-वर्ण हिमकर को भी तो
ग्रस लेते हैं तम के घेरे
फिर क्यों मन मे संशय तेरे

मान झूठ अपमान झूठ है
जीवन का अभिमान झूठ है
जग-असत्य की प्रत्यंचा पर
सायक हैं माया के प्रेरे
फिर क्यों मन में संशय तेरे



शिल्पा सैनी 

दिन की चिड़िया


दिन की चिड़िया
 
दिन की चिड़िया
कतरव्यौंत में
अपने ही पर कुतर रही है
डैने खोले, काली छाया
धीरे-धीरे उतर रही है

एक-एक कर
झरते जाते हैं सुर्खाबी पंख
नदियों से घोंघे गुहराते हैं
मंदिर से शंख
आँखों के जंगल से कोई
शोभा यात्रा गुजर रही है

बीच-बीच में
दरकी-दरकी सभी उड़ाने हैं
चिड़िया की आँखों मै
चावल के दो दाने हैं
इन दानों पर जाने कब से
दुनिया भर की नजर रही है

बैठी है बिजली के तारों पर
झूले मन में
हम झूलें तो जाने क्या
हो जाये पल-छिन में
इसीलिए यह चिड़िया है
जो बिजली से बेखबर रही है 

जय जन भारत


जय जन भारत
 
जय जन भारत
जन- मन अभिमत
जन गणतंत्र विधाताजय गणतंत्र विधाता

गौरव भाल हिमालय उज्जवल
हृदय हार गंगा जल
कटि विंध्याचल सिंधु चरण तल
महिमा शाश्वत गाता
जय जन भारत...

हरे खेत लहरें नद-निर्झर
जीवन शोभा उर्वर
विश्व कर्मरत कोटि बाहुकर
अगणित-पद-ध्रुव पथ पर
जय जन भारत...

प्रथम सभ्यता ज्ञाता
साम ध्वनित गुण गाता
जय नव मानवता निर्माता
सत्य अहिंसा दाता

जय हे- जय हे- जय हे
शांति अधिष्ठाता
जय-जन भारत...

दीप धरो


दीप धरो
 सखि ! दीप धरो !

काली-काली
अब रात न हो,
घनघोर तिमिर बरसात न हो,
बुझते दीपों में
--------------------हौले-हौले,
सखि ! स्नेह भरो !
सखि ! दीप धरो !

दमके
प्रिय-आनन हास लिए,
आगत नवयुग की आस लिए,
अरुणिम अधरों से
--------------------हौले-हौले,
सखि ! बात करो !
सखि ! दीप धरो !

बीते बिरहा
के सजल बरस
गूँजे मंगल नव गीत सरस
घर आये प्रियतम,
--------------------हौले-हौले
सखि ! हीय हरो !
सखि ! दीप धरो !

तितली


तितली
 दूर देश से आई तितली
चंचल पंख हिलाती।
फूल-फूल पर कली-कली पर
इतराती इठलाती।

यह सुन्दर फूलों की रानी
धुन की मस्त दिवानी,
हरे भरे उपवन में आई
करने को मनमानी।

कितने सुन्दर पर है इसके
जग मग रंग रंगीले,
लाल हरे बैजनी वसन्ती
काले नीले पीले।

कहाँ - कहाँ से फूलों के रंग
चुरा चुरा कर लाई
आते ही इसने उपवन में
कैसी धूम मचाई।

डाल-डाल पर पात-पात पर
यह उड़ती फिरती है,
कभी खूब ऊँची चढ़ जाती
फिर नीचे गिरती है।

कभी फूल के रस पराग पर
रूक कर जी बहलाती,
कभी कली पर बैठ, न जाने
गुप चुप क्या कह जाती।

नदी पद्मावती


नदी पद्मावती
 
सूखकर काँटा हुई है
भील कन्या सी
नदी पद्मावती
ठूँठ से उतरी चिरैया
चुग रही है रेत
बुन रहा वन एक सन्नाटा
तैरते वातावरण में
संशयों के प्रेत
बलते जल में पड़ी है
सोन मछली हाँफती

जिंद
गी है
आदि कवि की आँख से
हरती व्यथा
भूमि से हैं आज निर्वासित
जनक जननी आत्मजा

फेंकता है काल अपने जाल
काँपती असहाय सी
बूढ़ी शती

महका मन


महका मन
 
बहुत दिन के बाद
महका मन

सिलवटें कम की समय ने
एक ठंडक पी
लहलहाने लगा उर का
विपिन दंडक भी
मुदित चिड़ियों-सा
प्रकृति के साथ
चहका मन
बहुत दिन के बाद
महका मन

मिल गई पर्यावरण को
शुद्ध आक्सीजन
इस तरह से कुछ हुआ
ॠतु-चक्र परिवर्तन
डूबकर स्वप्निल
सुरा-सरि आज
बहका मन
बहुत दिन के बाद
महका मन

बदरा बरस गए


बदरा बरस गए
 मीठी-मीठी मचा गुदगुदी
मन में सरस गए
बदरा बरस गए कजरारे
बदरा बरस गए

अभी-अभी तो
नभ गलियों में
इठलाते से आए थे
कभी घूमते
कभी झूमते
भँवरे से मँडराए थे
देख घटा की अलक श्यामली
अधरों से यूँ परस गए
बदरा बरस गए मतवारे
बदरा बरस गए

रीती नदिया
झुलसी बगिया
डाली-डाली प्यास जगी
जल-जल सुलगी
दूब हठीली
नेह झड़ी की आस लगी
भरी गगरिया लाए मेघा
झर-झर मनवा सरस गए
बदरा बरस गए कजरारे
बदरा बरस गए

सुन के तेरे
ढोल-नगाड़े
धरती द्वारे आन खड़ी
रोली-चंदन
मिश्री-आखत
धूप औ' बाती थाल धरी
रोम-रोम से रोए, साजन
बिन तेरे हम तरस गए
बदरा बरस गए लो कारे
बदरा बरस गए







शिल्पा सैनी 

आदमी...बौना हुआ है

आदमी...बौना हुआ है
प्रगति की लंबी छलाँगें मारकर भी
आदमी क्यों इस क़दर बौना हुआ है?

बो रहा काँटे
भले चुभते रहें वे,
पीढ़ियों के
पाँव में गड़ते रहें वे,

रोशनी को छीनकर बाँटें अंधेरा,
राह में अंधा हर एक कोना हुआ है।

मेड़ ही
अब खेत को खाने लगी है
और बदली
आग बरसाने लगी है,

अब पहरुए ही खड़े हैं लूटने को,
मौसमों पर, हाँ, कोई टोना हुआ है।

क्षितिज के
उस पार जाने की ललक में,
नित
कुलाँचें ही भिड़ाता है फलक में,

एक बनने को चला था डेढ़, पर वह
हो गया सीमित कि अब पौना हुआ है।

२६ जनवरी २००९


शिल्पा सैनी 



कलफ लगे खादी के कुरते

सड़कों पर
फिर मचक रहे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।

मन कौए का बगुले सा तन
मगरमच्छ-आँसू ले डोलें,
लगें धूप में छाँव घनेरी
कोयल जैसी बोली बोलें,
रह-रह कर
बस कुहक रहे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।

कितने षिलान्यास-लोकार्पण
उद्घाटन की खबरें बनकर,
पटे पड़े हैं अखबारों में
छायाचित्रों में सज-सजकर,
सिक्कों से
अब खनक रहे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।

पहन-पहन गणवेष मौसमी
तन के उजले मन के कारे
प्रजातंत्र की शरद-जुन्हैया
चले ब्याहने ये अँधियारे,
दूल्हा बन
कर ठसक रहे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।
विनम्रता हो मूर्त, भाल नत
हाथ जोड़ सड़कों पर घूमें,
आम आदमी के चरणों को
खास आदमी झुक-झुक चूमे,
बोल मधुर
ले चहक रहेे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।
२२ अगस्त २०११

शिल्पा सैनी 


दिन


दिन

सीढ़ियों पर
धूप से
चढ़ते-उतरते दिन।

नहीं हारे
हर घड़ी हर पल चले,
तार पर ज्यों
चल रहे हों सिलसिले,
और नट की
झूम से
गिरते-संभलते दिन।

दिन चढ़ा
ऐसे कि हो हल्दी चढ़ी,
शाम शरमीली
रचा मेहंदी खड़ी,
रूपसी के
रूप से
सजते-संवरते दिन।

अभी
क्षिति पर थे
अभी आकाष में,
साँप-सीढ़ी से
समय के पाष में,
आदमी के
भाग्य से
बनते-बिगड़ते दिन।

शिल्पा सैनी 

दोस्त हरदम साथ रहना

दोस्त तुम हो


तारे जैसे बहुत दूर
पर
साथ साथ हर रोज
दोस्त तुम हो
फूलों की
मनरची गंध से
तितली के
अभिनमित पंख से
हर दिन हफ्ता साल
मुदित मुस्काए
दोस्त तुम हो
सुबह की धूप
कि जैसे
समा न पाए अँजुरी में
पर
मन घर आँगन
सभी जगह बिखराए
दोस्त तुम हो
जीवन के
गहरे सागर की
 तलहटियों में पलने वाले
सपनों को दे दिशा
सत्य पर
मदिर मदिर तैराए
दोस्त तुम हो
लगी आस में
बुझी प्यास में
मन उदास में
तम उजास में
साँस बाँस में
पूरी तरह समाए
दोस्त तुम हो


शिल्पा सैनी 
20  जुलाई   २०११

उस नीलम की संध्या में



उस नीलम की संध्या में
हम 
तुम दो तारों जैसे
वो घनी चाँदनी शीतल
वो 
कथा कहानी से पल
वो 
नर्म दूब की शबनम
वो 
पुनर्जन्म सा मौसम
वो मलय समीरण झोंके
जीवन
   पतवारों  जैसे
उस 
नीलम की संध्या में
हम 
तुम दो तारों जैसे
वो चाँद का मद्धम तिरना
वो रात का रिमझिम गिरना
वो 
 मौन का कविता करना
' बात का कुछ न कहना
तारों के जगमग दीपक
नभ 
बंदनवारों जैसे
उस नीलम की संध्या में
हम 
तुम दो तारों जैसे