Sunday, August 28, 2011

आदमी...बौना हुआ है

आदमी...बौना हुआ है
प्रगति की लंबी छलाँगें मारकर भी
आदमी क्यों इस क़दर बौना हुआ है?

बो रहा काँटे
भले चुभते रहें वे,
पीढ़ियों के
पाँव में गड़ते रहें वे,

रोशनी को छीनकर बाँटें अंधेरा,
राह में अंधा हर एक कोना हुआ है।

मेड़ ही
अब खेत को खाने लगी है
और बदली
आग बरसाने लगी है,

अब पहरुए ही खड़े हैं लूटने को,
मौसमों पर, हाँ, कोई टोना हुआ है।

क्षितिज के
उस पार जाने की ललक में,
नित
कुलाँचें ही भिड़ाता है फलक में,

एक बनने को चला था डेढ़, पर वह
हो गया सीमित कि अब पौना हुआ है।

२६ जनवरी २००९


शिल्पा सैनी 



कलफ लगे खादी के कुरते

सड़कों पर
फिर मचक रहे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।

मन कौए का बगुले सा तन
मगरमच्छ-आँसू ले डोलें,
लगें धूप में छाँव घनेरी
कोयल जैसी बोली बोलें,
रह-रह कर
बस कुहक रहे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।

कितने षिलान्यास-लोकार्पण
उद्घाटन की खबरें बनकर,
पटे पड़े हैं अखबारों में
छायाचित्रों में सज-सजकर,
सिक्कों से
अब खनक रहे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।

पहन-पहन गणवेष मौसमी
तन के उजले मन के कारे
प्रजातंत्र की शरद-जुन्हैया
चले ब्याहने ये अँधियारे,
दूल्हा बन
कर ठसक रहे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।
विनम्रता हो मूर्त, भाल नत
हाथ जोड़ सड़कों पर घूमें,
आम आदमी के चरणों को
खास आदमी झुक-झुक चूमे,
बोल मधुर
ले चहक रहेे हैं
कलफ लगे खादी के कुरते।
२२ अगस्त २०११

शिल्पा सैनी 


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