दिन | |
सीढ़ियों पर धूप से चढ़ते-उतरते दिन। नहीं हारे हर घड़ी हर पल चले, तार पर ज्यों चल रहे हों सिलसिले, और नट की झूम से गिरते-संभलते दिन। दिन चढ़ा ऐसे कि हो हल्दी चढ़ी, शाम शरमीली रचा मेहंदी खड़ी, रूपसी के रूप से सजते-संवरते दिन। अभी क्षिति पर थे अभी आकाष में, साँप-सीढ़ी से समय के पाष में, आदमी के भाग्य से बनते-बिगड़ते दिन। शिल्पा सैनी |
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