Sunday, August 28, 2011

स्वार्थ की दोपहरी में


स्वार्थ की दोपहरी में
 स्वार्थ की
दुपहरी में क्यों रहा टहल
तन-मन झुलसा देगा अपनों का छल

काँटों से
भरी हुयी छूना मत शाख
आग लगा सकती है बुझी हुयी राख
तेज़ बहुत आँधी है बस, ज़रा संभल

फँसना मत
कलियों के रूप में कभी
धोखे ही खाकर मैं आया अभी
आग सी हवायें हैं मोम से महल

रोओ मत
भीगेंगे आँख के सपन
मुड़ कर जो देखोगे आयेगी थकन
औरों को देखो पर जाओ न मचल

जिसको तू
सौंपेगा तन मन की गंध
जिस पर लुटायेगा अपना मकरन्द
वही तुझे कह देंगे चमन से निकल



शिल्पा सैनी 

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