Sunday, August 28, 2011

नदी पद्मावती


नदी पद्मावती
 
सूखकर काँटा हुई है
भील कन्या सी
नदी पद्मावती
ठूँठ से उतरी चिरैया
चुग रही है रेत
बुन रहा वन एक सन्नाटा
तैरते वातावरण में
संशयों के प्रेत
बलते जल में पड़ी है
सोन मछली हाँफती

जिंद
गी है
आदि कवि की आँख से
हरती व्यथा
भूमि से हैं आज निर्वासित
जनक जननी आत्मजा

फेंकता है काल अपने जाल
काँपती असहाय सी
बूढ़ी शती

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